Monday, 18 May 2015

साखी – 1

साखी – 1


साहेब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय।
दूजा साहेब जो कहूँ, साहेब खरा रिसाय॥
सर्गुण की सेवा करो, निर्गुण का करूँ ज्ञान।
निर्गुण सर्गुण के परे, तहैं हमारा ध्यान॥
आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पूछै बात।
सो गूंगा गुड़ खाइकै, कहै कौन मुख स्वाद॥
समझे तो घर में रहै, परदा पलक लगाय।
तेरा साईं तुज्झ में, अनंत कहूँ मत जाय॥
तेरा साईं तुज्झ में, ज्यों पहपन में वास।
कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिर फिर ढूँढे घास॥
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल॥
जाको राखे साइयाँ, मारि सकै ना कोय।
बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥
पानी ही ते हिम भया, हिम ही गया बिलाय।
कबिरा जो था सोइ भया, अब कछु कहा न जाय॥
साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय॥
सभी रसायन हम करि, नहि नाम सम कोय।
रंचक घट में संचरे, सब तन कंचन होय॥
दुख में सुमिरन सब करैं, सुख में करै ना कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होय॥
प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस।
तन में मन में नैन में, ताको कहा संदेस॥
हरि से जनि तू हेत कर, कर हरिजन से हेत।
माल मुलुक हरि देत है, हरिजन हरिहीं देत॥
नैनन की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय।
पलकों की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय॥
सबै रसायन मैं किया, प्रेम समान न कोय।
रति इक तन में संचरै, सब तन कंचन होय॥
पीया चाहै प्रेमरस, राखा चाहै मान।
एक म्यान में दो खड़ग, देखा सुना न कान॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं॥
जल ज्यों प्यारा माछरी, लोभी प्यारा दाम।
माता प्यारा बालका, भक्त पियारा नाम॥
समदृष्टि सतगुरु किया, मेटा भरम विकार।
जहँ देखौ तहँ एक ही, साहेब का दीदार॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार।
हंस रूप कोइ साधु है, ततका छाननहार॥
माँगन मरन समान है, मत कोइ माँगो भीख।
माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख॥
माया छाया एक सी , बिरला जानै कोय।
भगता के पीछे फिरै, सनमुख भागै सोय॥
जैसा अन जल खाइए, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिए, तैसी बानी सोय॥
निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥
मधुर वचन है औषधी, कटुक वचन है तीर।
स्रवन द्वार है संचरै, सालै सकल सरीर॥
सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय।
सात समुंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय॥
कबिरा गर्व न कीजिए, काल गहे कर केस।
ना जानौं कित मारिहै, क्या घर क्या परदेस॥
यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान।
सीस दिए जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
कबिरा नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय।
वह पुर पट्टन यह गली, बहुरि न देखौ आय॥
वृच्छ कबहुँ नहि फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधूता धरा सरीर॥

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