Monday, 18 May 2015

साखी – 2

साखी – 2


गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय॥
माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर॥
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहि।
मनवा तो दहु दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहि॥
क्या मुख लै बनती करौं, लाज आवत है मोहि।
तुम देखत ‌औगुन करौं, कैसे भावौं तोहि॥
कहता तो बहुता मिला, गहता मिला न कोइ।
जो कहता बहि जान दे, जो नहि गहता होइ॥
साधू गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय।
आगे पीछे हरि खड़े, जब माँगे तब देय॥
नीर भया तो क्या भया, ताता सीरा जोय।
साधू ऐसा चाहिए, जो हरि जैसा होय॥
निरमल भया तो क्या भया, निमरल माँगे ठौर।
मल निरमलतें रहित है, ते साधु कोइ और॥
उतते कोई न बाहुरा, जासे बूझूँ धाय।
इततें सबहीं जात हैं, भार लदाय लदाय॥
कथनी मीठी खाँड़ सी, करनी विष की लोय।
कथनी तज करनी करै, विष से अमृत होय॥

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