Monday, 18 May 2015

वृन्द के दोहे (Vrind ke Dohe)

वृन्द के दोहे (Vrind ke Dohe)


करै बुराई सुख चहै कैसे पावै कोइ।
रोपै बिरवा आक को आम कहाँ ते होइ॥
भली करत लागति बिलम बिलम न बुरे विचार।
भवन बनावत दिन लगै ढाहत लगत न वार॥
जाही ते कछु पाइए करिए ताकी आस।
रीते सरवर पै गए कैसे बुझत पियास॥
अपनी पहुँच बिचार कै करतब करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर॥
नीकी पै फीकी लगै बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में रस श्रृंगार न सुहात॥
विद्याधन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन?
बिना डुलाये ना मिले ज्यों पंखा की पौन॥
कैसे निबहै निबल जन कर सबलन सों गैर।
जैसे बस सागर विषै करत मगर सों बैर॥
फेर न ह्वै हैं कपट सों जो कीजै व्यौपार।
जैसे हांडी काठ की चढ़ै न दूजी बार॥
बुरे लगत सिख के बचन हियै विचारौ आप।
करुवी भेषज बिन पियै मिटै न तन की ताप॥
करिए सुख की होत दुःख यह कहो कौन सयान।
वा सोने को जारिए जासों टूटे कान॥
भले बुरे सब एक सौं जौं लौं बोलत नाहि।
जानि परतु है काक पिक ऋतु वसंत के माहि॥
नयना देत बताय सब हिय की हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी भली बुरी कहि देत॥
रोष मिटै कैसे कहत रिस उपजावन बात।
ईंधन डारै आग मों कैसे आग बुझात॥
अति परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चंदन देति जराय॥
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै केतक सींचौ नीर॥
जिहि प्रसंग दूषण लगे तजिए ताको साथ।
मदिरा मानत है जगत दूध कलाली हाथ॥
उत्तम जन सो मिलत ही अवगुन सौ गुन होय।
घन संग खारौ उदधि मिलि बरसै मीठो तोय॥
कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥
क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ कैसे निकसे तोय॥
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥

No comments:

Post a Comment