तुलसी के दोहे – 1 (Tulsi ke Dohe)
राम नाम मनि दीप धरू जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहरौ जौ चाहसि उजियार॥
तुलसी भीतर बाहरौ जौ चाहसि उजियार॥
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर॥
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥
तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक
साहस सुकृति सुसत्यव्रत राम भरोसे एक॥
साहस सुकृति सुसत्यव्रत राम भरोसे एक॥
तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।
बसीकरन एक मंत्र है परिहरू बचन कठोर॥
बसीकरन एक मंत्र है परिहरू बचन कठोर॥
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसे मेह॥
तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसे मेह॥
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण॥
तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण॥
काम क्रोध मद लोभ की जब लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान॥
तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान॥
बिना तेज के पुरुष की अवशि अवज्ञा होय।
आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय॥
आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय॥
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए साधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥
No comments:
Post a Comment