कबीर के दोहे – 10 (Kabir ke Dohe)
हीरा पड़ा बाज़ार में, रहा छार लिपटाय।
बहुतक मूरख चलि गए, पारखि लिया उठाय॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ अँखियन पड़े, पीर घनेरी होय॥
कबहुँ उड़ अँखियन पड़े, पीर घनेरी होय॥
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय॥
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय॥
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर॥
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर॥
बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि॥
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि॥
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय॥
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय॥
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय॥
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय॥
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
आया हैं सो जायगा, राजा रंक फ़कीर।
इक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँध जात जंजीर॥
इक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँध जात जंजीर॥
अकथ कहानी प्रेम की, कुछ भी कहा न जाय।
गूंगा केरा सर्करा, स्वाद न जाय बताय॥
गूंगा केरा सर्करा, स्वाद न जाय बताय॥
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
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